ट्रिपल तलाक़
'मैं किसी समुदाय के विकास और स्वतंत्रता का आकलन उस समुदाय कीे स्त्रियो के विकास और स्वतंत्रता के परिमाण से करूँगा'-बी.आर.अम्बेडकर
ये पंक्तियाँ एक समाज में नारी के योगदान की महत्ता के साथ साथ हमारे संविधान के वास्तुकार की विचार दर्शाती हैं।भारत का संविधान सभी नागरिकों के समानता पर बल देता है।अगर संविधान के मूल स्तंभों पर आंच आती है भले वो धार्मिक आधार पर ही क्यों न हो उसे बर्दाश्त नही किया जा सकता और तब उसमें कार्यपालिका और न्यायपालिका का हस्तक्षेप आवश्यक हो जाता है।ट्रिपल तलाक़ इसका ज्वलंत उदाहरण है।
इस्लामिक प्रथाओं के अनुसार तलाक़ के सामान्यतः 3 प्रकार होते हैं-अहसन,हसन और तलाक़-ऐ-बिद्दत। अहसन तलाक़ प्रथा के अनुसार अगर पुरुष एक बार तलाक़ का उच्चारण करता है फिर तीन महीने के अंतराल तक जिसे इद्दत बोला जाता है उन्हें पुनर्विचार करने का समय दिया जाता है।इद्दत का समय ख़त्म होने क बाद तलाक़ मान्य हो जाता है।हसन तलाक़ प्रथा में एक बार तलाक़ बोलने के बाद एक महीने के अंतराल पर तलाक़ न बोलने पर रद्द हो जाता है परंतु अगर पुरुष तलाक़ बोल देता है तो एक महीने के इद्दत का समय और मिलता है और ये तीसरी बार दोहराने पर तलाक़ मान्य हो जाता है। तलाक़-ऐ-बिद्दत में एक मुस्लिम पुरुष के तीन बार तलाक़ बोलने से बिना किसी इद्दत के तलाक़ मान्य हो जाता है।इस दौरान पुरुष का तलाक़ के लिए कारण बताना अनिवार्य नहीं होता और महिला की उपस्थिति भी आवश्यक नहीं रहती।
ट्रिपल तलाक़ से होने वाले दुष्परिणाम
1.महिला के जीवन में ट्रिपल तलाक़ के कारण उसे पति के सामने अपनी बात रखने का भी मौका नहीं मिलता।
2.महिलायें अचानक तलाक़ से मानसिक तनाव से ग्रसित हो जाती है।
3.महिलाओं जिन्हें बच्चे होते है उन्हें अपने हिस्से की रक़म भी नहीं मिल पाती जिससे वह अपनी जीविकोपार्जन कर सके।
4.तलाक़शुदा महिलाएं को समाज का बहिष्कार झेलना पड़ता है।
5.अगर वे फिर से अपनी पति क साथ रहना चाहें तो उन्हें निकाह हलाला जैसी क्रूर और पक्षपाती प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।निकाह हलाला को निर्दयी और लोभी मौलवियो ने व्यापर बना रखा है।निकाह हलाल प्रक्रिया में किसी गैर मर्द से निकाह करके और शारीरिक सम्बन्ध बना के उसे तलाक़ देना पड़ता है।
केंद्र सरकार ने शायरा बानो और अन्य 5 ट्रिपल तलाक़ से जुड़े हुए मामलो को हथियार बनाकर उच्च न्यायलय में इस कुप्रथा के विरुद्ध अर्जी दायर की। जिसकी सुनवाई पांच न्यायाधीशों की पीठ ने की जिसमे मुख्य न्यायाधीश जे खेहर जो सिख समुदाय से है उनके साथ अन्य विभिन्न चार समुदायो के न्यायाधीश थे। केंद्र सरकार की तरफ से मुख्य सलाहकार अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी थे और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की तरफ से मुख्य सलाहकार कपिल सिब्बल थे। उच्च न्यायलय ने इस प्रथा को संविधान के विरुद्ध मानते हुए और इसे महिलाओं के मौलिक अधिकारो का हनन मानते हुए 3-2 से इसे प्रतिबंधित करने का फैसला सुनाया। मुख्य न्यायाधीश और न्यायाधीश नज़ीर इसे धर्म से जुड़े मामला बताते हुए न्यायपालिका के हस्तक्षेप से इंकार किया और संसद के हस्तक्षेप की बात की वही अन्य तीन न्यायाधीशों ने इसे एक सुर से नकारते हुए कहा की इस प्रथा का जिक्र कुरान में नहीं है इसीलिये ये धर्म से जुड़ा मामला नहीं है और इस पर तुरंत कदम उठाने की जरुरत है।
जिस तरह द्रौपदी के चीर हरण के दौरान दरबार में वैठे शांत महापुरुष दोषी थे उसी तरह तीन तलाक़ के मुद्दे पर चुप्पी साधने वाले समान रूप से दोषी हैं।यह एक पक्षपाती,क्रूर और हास्यास्पद प्रथा है जो कि इस्लाम जैसे पवित्र धर्मं को दागदार बनाती है।इन्ही कारणों से यह 55 इस्लामिक देशो में से 22 इस्लामिक देशो में प्रतिबंधित है जिसमे पाकिस्तान और बांग्लादेश भी है।महान राजनीतिज्ञ और दार्शनिक चाणक्य के शब्दों में 'महिलाये ही समाज की वास्तुकार होती है।' अगर हम वास्तुकारों को ही मौलिक अधिकारो से वंचित रखेंगे तो समाज क ढाँचे में दरार आना स्वाभाविक है।समय समय पर हिन्दू धर्म भी सती प्रथा,बाल विवाह,छुआछूत जैसी कुप्रथाओं से ग्रसित हुआ जिसका अंत में निवारण हुआ और इस्लाम धर्म के लोगों को भी कुप्रथा जैसे तलाक़-ऐ-बिद्दत,पर्दा प्रथा,खतना,निकाह हलाला से इस्लाम को मुक्त करना होगा क्योकि कभी भी कोई धर्म किसी मानवाधिकार के हनन की बात कर ही नहीं सकता।हमें यह समझना होगा की बरसाती धर्मनिरपेक्ष नेताओ और झूठे धर्मगुरुओं की वजह से हम अपनी कुप्रथाओ को जिन्दा नहीं रख सकते और खासकर की मुस्लिम समुदाय को समझना होगा की वे केवल एक वोट बैंक नहीं है बल्कि भारत के समाज का एक अभिन्न हिसा हैं और भारत के विकास में उनका बराबरी की हिस्सेदारी है।
जय हिन्द।
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